हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह,
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह,
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम,
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह,
वो तो कहीं है और मगर दिल के आस-पास,
फिरती है कोई शय निगह-ए-यार की तरह,
सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूँही कहीं कहीं,
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह,
बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगाँ,
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह,
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनूँ,
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह,
‘मजरूह’ लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम,
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह,
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
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August 12, 2018
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